- जन जागरूकता और सामाजिक न्याय के लिए प्रकाशित
जालंधर/सोमनाथ कैंथ
बात शिक्षा की हो, नौकरी की हो या सियासत की अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मिले में आरक्षण का अंदरखाते विरोध होता ही है। सदियों से अस्पृश्यता, अन्याय और अपमान का दंश झेल रही अनुसूचित जाति को यह अधिकार कैसे मिले, इसके पीछे कितना बड़ा संघर्ष करना पड़े इस मुद्दे पर आज बहुजन संदेश के साथ बात करते हुए एडवोकेट सत पॉल विर्दी ने सदियों के संघर्ष की बातें सांझा करते हुए बताया-
1947 में भारत की स्वतंत्रता से पहले भी, अनुसूचित जातियां (SC) और अनुसूचित जनजातियां (ST) व्यवस्थागत बहिष्कार और सामाजिक अन्याय के भारी बोझ तले जी रही थीं। सदियों से भारतीय समाज में गहराई से जड़ें जमाए बैठी जाति व्यवस्था ने इन समुदायों को शिक्षा, स्वच्छ जल, भूमि, सम्मानजनक आजीविका और बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित रखा।
1891 में एक दलित के रूप में जन्मे डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने इस जड़ जमाए जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। 1927 में, उन्होंने महाड़ सत्याग्रह (अन्य नाम: चवदार तालाब सत्याग्रह व महाड का मुक्तिसंग्राम) का नेतृत्व किया, जो सार्वजनिक जल तालाबों तक दलितों की पहुंच सुनिश्चित करने वाला एक ऐतिहासिक नागरिक अधिकार आंदोलन था।
1932 के पूना समझौते के दौरान उनके नेतृत्व ने, जहां उन्होंने महात्मा गांधी के साथ बातचीत की, वहीं अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित विधायी सीटों की नींव रखी।
हालांकि गांधीजी ने शुरू में पृथक निर्वाचिका का विरोध किया था, लेकिन अंबेडकर की वकालत ने संयुक्त निर्वाचिका प्रणाली के अंतर्गत दलितों के लिए राजनीतिक सुरक्षा सुनिश्चित की।
1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो संविधान प्रारूप समिति(Constitution Drafting Committee) के अध्यक्ष के रूप में डॉ. अंबेडकर ने ही राष्ट्र के ताने-बाने में सकारात्मक कार्रवाई को शामिल किया। संविधान के अनुच्छेद 15(4), 16(4) और 46 ने राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान करने का कानूनी अधिकार दिया। आरक्षण कभी भी एक उपकार नहीं था; यह न्याय, समता और सशक्तिकरण का एक साधन था।
आरक्षण: न्याय का एक साधन
आरक्षण एक प्रकार की सकारात्मक कार्रवाई है—कोई रियायत नहीं। यह ऐतिहासिक रूप से समान अवसर से वंचित लोगों के लिए सार्वजनिक शिक्षा, सरकारी रोजगार, विधायिका और छात्रवृत्ति में कोटा प्रदान करता है। इसका उद्देश्य सदियों से चले आ रहे भेदभाव, भूमिहीनता, बंधुआ मजदूरी और सार्वजनिक जीवन से बहिष्कार के अन्याय को दूर करना है। इसका उद्देश्य अक्षमता को पुरस्कृत करना नहीं है, जैसा कि अक्सर गलत तरीके से प्रस्तुत किया जाता है, बल्कि समाज के हाशिये पर व्यवस्थित रूप से धकेले गए समुदायों तक समान पहुँच और सम्मान सुनिश्चित करना है।
• अनुसूचित जातियां (SC): कभी “अछूत” समझे जाने वाले, मंदिरों, स्कूलों और ग्रामीण जीवन से वंचित।
• अनुसूचित जनजातियां (ST): मूल निवासी जिन्हें आर्थिक उपेक्षा और भौगोलिक अलगाव का सामना करना पड़ा है।
ये समुदाय आज भी गरीबी, कम साक्षरता, बेरोजगारी और सामाजिक बहिष्कार का सामना कर रहे हैं। आरक्षण उनके लिए अवसरों का मार्ग है।
जमीनी हकीकत: एक संवैधानिक अधिकार का हनन
संविधान में निहित होने के बावजूद, आरक्षण को व्यवहार में व्यवस्थित रूप से कमजोर किया गया है, खासकर 2014 के बाद से सत्ता में आई सरकारों के कार्यकाल में। संविधान में किए गए वादे वास्तविक कार्यान्वयन में लगातार कमज़ोर होते जा रहे हैं:
• रोज़गार के अवसर कम होते जा रहे हैं—सरकारी नौकरियाँ या तो बंद हैं या आउटसोर्स की जा रही हैं।
• SC/ST उम्मीदवारों को अक्सर नौकरी में नियुक्तियों, पदोन्नति या उचित प्रतिनिधित्व में देरी या इंकार का सामना करना पड़ता है।
• ग्रामीण और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति बहुल क्षेत्रों में सरकारी स्कूल बंद किए जा रहे हैं, जिससे बच्चे शिक्षा से वंचित हो रहे हैं।
• सरकार की आर्थिक और शैक्षिक नीतियाँ अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के विकास को प्राथमिकता देने में विफल रही हैं, जिससे ये समुदाय गरीबी और गुमनामी की ओर और बढ़ रहे हैं।
यह आरक्षण को जानबूझकर कमज़ोर करने के समान है, न केवल संख्या के लिहाज से, बल्कि इरादे के लिहाज से भी। डॉ. अंबेडकर ने जिसे सशक्तिकरण और न्याय का एक साधन माना था, उसे एक दिखावटी दिखावा बना दिया गया है।
तथ्य झूठ नहीं बोलते: गरीबी बनी हुई है
आज़ादी के 78 साल बाद भी, आंकड़े चिंताजनक बने हुए हैं:
• 2011 सामाजिक आर्थिक और आर्थिक जनगणना: 21.5% ग्रामीण भारतीय परिवार अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के हैं; इनमें से 60% परिवार आधिकारिक तौर पर वंचित थे।
• 2022 बिहार जाति सर्वेक्षण: 34% परिवार ₹6,000/माह से कम कमाते हैं; इनमें से 43% अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के हैं।
• बहुआयामी गरीबी (शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास) अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों में सबसे तीव्र बनी हुई है।
40% से ज़्यादा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति परिवार अभी भी गरीबी में जी रहे हैं। ये सिर्फ़ संख्याएं नहीं हैं—ये जाति-आधारित बहिष्कार के चक्र में फंसे लाखों लोगों को दर्शाती हैं, जो नौकरियों की कमी, शिक्षा प्रणालियों की विफलता और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति विरोधी नीतियों के कारण और भी बदतर हो गया है।
अंबेडकर बनाम गांधी: न्याय बनाम आध्यात्मिक सुधार
1932 में, गांधीजी ने हिंदू समाज के विखंडन के डर से दलितों के लिए पृथक निर्वाचिका का विरोध किया। उन्होंने इसके विरोध में उपवास किया। हालांकि, अंबेडकर राजनीतिक अधिकारों और प्रतिनिधित्व पर अडिग रहे, जिसके परिणामस्वरूप पूना समझौता(Poona Pact ) हुआ—एक ऐसा समझौता जिसने संयुक्त निर्वाचिका मंडलों में आरक्षित सीटों की अनुमति दी।
गांधी जी जहां आध्यात्मिक उत्थान चाहते थे, वहीं अंबेडकर कानूनी सुरक्षा उपायों की मांग करते थे। इस संवाद के परिणामस्वरूप आरक्षण एक संवैधानिक गारंटी बन गया—न कि एक दान का कार्य।
अंबेडकर का दृष्टिकोण: अभी भी प्रासंगिक, अभी भी नकारा
डॉ. आंबेडकर की विरासत में शामिल हैं:
• नागरिक अधिकारों के लिए महाड़ सत्याग्रह का नेतृत्व
• राजनीति, नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण सुनिश्चित करना
• भेदभाव-विरोधी कानूनों का मसौदा तैयार करना
• दिखावे और सह-विकल्प के विरुद्ध चेतावनी
फिर भी, आज उस दृष्टिकोण पर हमला हो रहा है। नीतिगत उपेक्षा से लेकर वैचारिक विरोध तक, वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक माहौल एससी/एसटी की प्रगति के पक्ष में नहीं है। आरक्षण योग्यता के विरुद्ध नहीं है—यह अवसर सुनिश्चित करता है।
आरक्षण के बिना:
• उच्च जातियों का प्रभुत्व अब भी चुनौती रहित है।
• हाशिए पर पड़े लोगों को शिक्षा, नौकरी या प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो पाता।
• लोकतंत्र स्वयं कुछ लोगों का विशेषाधिकार बन गया है।
आरक्षण सदियों के बहिष्कार को तोड़ने और एक ऐसे भारत के निर्माण के लिए आवश्यक है जहां न्याय एक नारा नहीं, बल्कि एक जीवंत वास्तविकता हो।
वादा पूरा करें, उसे तोड़ें नहीं
आरक्षण एक संवैधानिक अधिकार है, कोई उपकार नहीं। यह विभाजन का साधन नहीं, बल्कि सम्मान और न्याय की गारंटी है। इसे “दिया” नहीं जा रहा है—इसका दावा, ऐतिहासिक गलतियों के लिए उचित मुआवजे के रूप में किया जा रहा है। एससी/एसटी को भावना और व्यवहार में आरक्षण से वंचित करना संविधान पर ही हमला है।
आइए याद रखें:
“न्याय के बिना समानता एक धोखा है।”
जब तक एससी/एसटी बच्चों को स्कूल, नौकरी, सम्मान और सुरक्षा तक समान पहुंच नहीं मिलती—आरक्षण न केवल जारी रहना चाहिए, बल्कि इसे सार्थक रूप से लागू भी किया जाना चाहिए।
“सशक्तिकरण, भीख नहीं: आरक्षण एक संवैधानिक अधिकार है, उपकार नहीं”
जहाँ कभी केवल मौन रहता था, वहाँ न्याय का उदय हो।